प्राकृतिक संसाधनों का दोहन

प्राकृतिक संसाधनों का दोहन

प्रारंभिक परीक्षाओं हेतु महत्वपूर्ण:

स्टाकहोम घोषणापत्र, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी),वर्ल्ड वाइल्ड फंड फार नेचर’लिविंग प्लैनेट’ संस्था

मुख्य परीक्षाओं हेतु महत्वपूर्ण:

प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, भारतीय दर्शन की उपयोगिता, वैश्विक प्रयास

12 अक्टूबर, 2023

संदर्भ:

  • वर्तमान में मानव की लापरवाही या अनभिज्ञता के कारण प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बढ़ा है इससे मानव के जीवन और पर्यावरण के बीच असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी है।
  • यह असंतुलन मानव द्वारा उपयोग की वस्तुओं का प्रबंधन न कर पाना प्रमुख कारणों में से एक है।
  • एक बेहतर जिंदगी में किस चीज की जरूरत कितनी, किस प्रकार और कब होती है और दूसरों को इससे कितना फायदा पहुंचा सकते हैं, व्यक्ति से लेकर देशों के स्तर तक यह समझ विकसित होना आवश्यक है। इसे जब तक हम बेहतर तरीके से नहीं समझेंगे, समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला। गांवों की धरोहर कही जाने वाले जल-स्रोत, बगीचे, वन, झीलें और अन्य प्राकृतिक संसाधन लगातार खत्म होते जा रहे हैं। शहरों में तो ये लगभग समाप्त होने की कगार पर हैं।

प्राकृतिक संसाधन:

  • प्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से प्राप्त होने वाले संसाधन, प्राकृतिक संसाधन होते हैं। इन संसाधनों को बिना किसी बदलाव के मानव द्वारा उपयोग में लाया जाता है। जैसे- जल, वायु, वन, भूमि, खनिज आदि।

प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर नियंत्रण:

  • प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन को रोकने के लिए 1972 में स्टाकहोम घोषणापत्र में टिकाऊ प्राकृतिक संसाधन प्रशासन के लिए बुनियादी सिद्धांत को लागू किया गया था
  • लेकिन आधी सदी के बाद भी इस घोषणापत्र कोई खास असर नहीं दिखा।
  • इसके मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के जरिए शुरू किए गए अंतरराष्ट्रीय संसाधन पैनल (आइआरपी) ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि प्रति व्यक्ति सामग्री की मांग का वैश्विक औसत 1970 में 7.4 टन से बढ़कर 2017 में 12.2 टन हो गया है।
  • वर्ल्ड वाइल्ड फंड फार नेचर’ की ‘लिविंग प्लैनेट’ संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की मांग प्रकृति की भरण-पोषण क्षमता से बहुत ज्यादा है। इस आधुनिक दौर में मानव की आवश्यकताएं इतनी अधिक बढ़ा बढ़ चुकी हैं वह प्राकृतिक और कृत्रिम संसाधनों से पूरी नहीं हो सकती।

प्रभाव:

  • पिछले पांच वर्षों में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इस वजह से ऋतु परिवर्तन, ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि और दूसरी समस्याएं बढ़ रही हैं।
  • ग्लेशियरों के पिघलने, सुनामी, बर्फीले तूफान, अकाल और बिना मौसम बरसात की समस्या इसकी ही वजह से बढ़ी है। कुदरत के साथ मनमानी का असर दुनिया के हर हिस्से और हर चीज पर पड़ रहा है, जिससे संकट लगातार बढ़ता जा रहा है।
  • हालांकि संयुक्त राष्ट्र, पर्यावरणविद्, वैज्ञानिक और प्रकृति संरक्षण से जुड़े लोग प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के भयावह परिणाम के बारे में कई बार चेतावनी जारी कर चुके हैं।
  • अनुमान के मुताबिक कोयला ज्यादा से ज्यादा दो सौ साल, पेट्रोलियम पदार्थ पचास साल, पानी पचास साल और खनिज पदार्थों के भंडार पचास साल से ज्यादा चलने वाले नहीं हैं।
  • पानी की विकट समस्या के कारण भविष्य में जल-युद्ध छिड़ सकता है। खास कर पश्चिम एशिया में, जहां पानी की बर्बादी सबसे ज्यादा होती है।
  • बिहार, असम और पूर्वोतर के कई राज्यों में प्रबंधन की विफलता की वजह से हर साल बाढ़ से जन-धन का भारी नुकसान हो जाता है।
  • बाढ़ से खेतों की उपजाऊ मिट्टी बह कर नदियों के जरिए समुद्र में पहुंच जाती है। इससे पैदावार पर भी जबरदस्त नकारात्मक असर पड़ता है। बाढ़ की वजह से हर साल मेड़बंदी करना बहुत बड़ी समस्या बन जाती है।
  • पूर्वोत्तर से पलायन की वजह बाढ़ और सूखा भी है। बिहार के कई इलाकों में खराब सड़कों की एक वजह बाढ़ भी है।

भारतीय दर्शन: प्राकृतिक संसाधनों का दोहन

  • अपरिग्रह मानव सभ्यता का वह प्राकृतिक नियम है, जिससे चेतन और अचेतन दोनों को संरक्षण मिलता है। प्रकृति संरक्षण हमारी भारतीय जीवन पद्धति का अंग रहा है। सभी भारतीय विचारकों ने अपरिग्रह को अपनाया और समाज को भी इसका पालन करने की प्रेरणा दी।
  • मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने की प्रतिस्पर्धा में यह भूल गया है कि इसके दुष्प्रभाव क्या हो सकते हैं। वह यह भी नहीं समझ पा रहा कि इस अंधी दौड़ में आखिर किससे आगे निकल जाना है।
  • भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आदर्श ही अपरिग्रह का पालन करना है। इसलिए हर भारतीय महापुरुष ने इसे अपनाने पर जोर दिया है। हमारे मनस्वियों ने एक स्वर में कहा कि कुदरत सामान्य रूप से हर किसी का पेट भर सकती है, लेकिन एक लालची का नहीं। उन्होंने अपरिग्रह को अपने जीवन का पर्याय बनाकर विश्व को बता दिया कि बिना लालच किस तरह आदर्श जीवन जिया जा सकता है।
  • गौरतलब है कि भारतीय दर्शन के इस नियम पर अमल करने से दुनिया से भूख, भय, भीड़, कृत्रिम संसाधन जुटाने की प्रतिस्पर्धा, लालच, संसाधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति, कृत्रिमता, जनसंख्या विस्फोट, अवैज्ञानिकता, अंधविश्वास, पाखंड, तनाव, बीमारियां और हिंसक एवं स्वार्थवादी प्रवृत्ति से छुटकारा मिल सकता है। हम कह सकते हैं कि महज एक साधारण से शब्द ‘अपरिग्रह’ को जिंदगी का हिस्सा बना लेने से दुनिया की तमाम समस्याएं खत्म हो सकती हैं। मतलब साफ है कि आने वाला कल सुनहरा हो, इसके लिए जरूरी है कि हम सभी के कदम खुशगवार सुबहों को बर्बाद करने वाले न हों।

समाधान:

  • संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं को बाजारवादी शक्तियों को प्राकृतिक संसाधनों के मामले में किफायत से काम लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
  • प्राकृतिक संसाधनों संरक्षण के लिए कार्य करने वाली संस्थाओं व पर्यावरण संरक्षण में लगे लोगों द्वारा  प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से बढ़ रही समस्याओं को लेकर जागरूकता कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए।
  • प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट की जगह प्रकृति के प्रति मैत्री भाव को अपनाया जाना चाहिए।
  • कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ, खनिज और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर अंकुश लगाए जाने की आवश्यकता है।
  • वैज्ञानिकों द्वारा प्रकृति संरक्षण हेतु अधिक से अधिक वैकल्पिक संसाधनों की खोज की जानी चाहिए।
  • बिहार में जल प्रबंधन की बहुत जरूरत है। बिहार में जल प्रबंधन से पीने के साफ पानी की किल्लत आसानी से दूर हो सकती है। साथ ही, खेती और रोजमर्रा की तमाम जरूरतें पूरी हो सकेंगी।
  • भूमंडलीकरण के दौर में प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित इस्तेमाल को लेकर आम लोगों में संवेदनशीलता पैदा करना कारगर हो सकता है। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों, स्वयंसेवी संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
  • ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की पश्चिमी जीवन-शैली के अंधानुकरण से बचना होगा और भारतीय अपरिग्रह वाली संस्कृति, संसाधनों के उपयोग और संरक्षण के साथ प्रकृति को मां समझने वाली विचारधारा को हर परिवार में पहुंचाने की जरूरत है।

चिंताएं:

  • प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन से जलवायु परिवर्तन और ऋतु चक्र में एक अवांछित बदलाव आया है और इस बदलाव से जो पारिस्थितिक असंतुलन उत्पन्न हुआ है, उसकी भरपाई करना सभी के सामने एक बड़ी चुनौती है।
  • पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंता व्यक्त करते रहे हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के खत्म होने के बाद इनके विकल्प के रूप में किन चीजों का इस्तेमाल किया जाएगा।

निष्कर्ष:

  • जाहिर है, आने वाली पीढ़ी के लिए हमारा दायित्व क्या है, हमें उसी तरह समझना होगा जिस तरह हमारे पूर्वज अपरिग्रह के सिद्धांत का पालन करते हुए हमारे लिए प्रकृति का अकूत भंडार सुरक्षित छोड़ गए।
  • इस आधुनिक दौर में हम पूरी तरह कृत्रिम संसाधनों पर निर्भर होने के लिए मजबूर हो गए हैं। यहां तक कि हवा, पानी और ऊर्जा के हर स्रोत को हम कृत्रिम ढंग से बनाकर या परिवर्तित-रूप में इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हैं। उपभोगवादी जीवनशैली आज की सच्चाई बन गई है और इसने जिंदगी को आसान बनाने के बजाय नई-नई समस्याओं को जन्म दिया है। इसलिए इससे छुटकारा पाना ही होगा। जब तक सकारात्मकता और अपरिग्रह की तरफ कदम नहीं बढ़ाएंगे, तब तक इस समस्या से छुटकारा पाना संभव नहीं है।

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मुख्य परीक्षा प्रश्न

प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को नियंत्रित करने में भारतीय दर्शन की उपयोगिता को स्पष्ट कीजिए