16.05.2025
दिव्यांगजनों के लिए डिजिटल पहुंच को सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकार माना
प्रसंग:
भारत की डिजिटल प्रणाली अब वित्तीय, स्वास्थ्य और सरकारी सेवाओं की रीढ़ बन चुकी है। परंतु, दिव्यांगजन विशेष रूप से डिजिटल KYC प्रक्रिया में भारी बहिष्करण का सामना कर रहे हैं। इसी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘डिजिटल पहुंच के अधिकार’ को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है।
मुद्दे का सार:
डिजिटल अवसंरचना:
बैंकिंग, टेलीकॉम, स्वास्थ्य और सार्वजनिक सेवाओं तक पहुँच के लिए डिजिटल पहचान आवश्यक हो चुकी है।
बहिष्करण:
नेत्रहीन, विकृत चेहरा या मानसिक विकलांगता वाले व्यक्तियों के लिए अनेक डिजिटल प्लेटफॉर्म पूरी तरह अनुपलब्ध हैं।
उदाहरण:
- फेस रिकग्निशन और सेल्फी अपलोड करना नेत्रहीनों के लिए कठिन।
- स्क्रीन पर चमकती सूचनाएं या ओटीपी प्रमाणीकरण, स्क्रीन रीडर से रहित होते हैं।
- अंगूठे के निशान को पैन या डिजिटल KYC में मान्यता नहीं दी जाती।
कानूनी आधार:
- अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
- अब इसमें शामिल है:
- गरिमा का अधिकार
- आश्रय, शिक्षा, स्वास्थ्य
- और अब: डिजिटल पहुंच का अधिकार
- अन्य प्रासंगिक अनुच्छेद:
- अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता
- अनुच्छेद 15: भेदभाव निषेध
वैधानिक ढाँचा:
- दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 (RPwD)
- UNCRPD के अनुरूप
- सामाजिक दृष्टिकोण अपनाता है
- धारा 42:
- ऑडियो विवरण
- कैप्शन
- संकेत भाषा
- सार्वभौमिक डिज़ाइन की अनिवार्यता
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप:
- राजीव रतूरी बनाम भारत संघ (2024)
- अप्रैल 2025 के KYC मामले में:
- डिजिटल पहुंच मौलिक अधिकार है
- डिजिटल बहिष्करण = डिजिटल भेदभाव
- RBI, SEBI, DoT को सार्वभौमिक डिज़ाइन और समावेशन अनिवार्य करना होगा
आगे का रास्ता:
- नियामकों की अनिवार्य भूमिका:
नियमों में बदलाव कर सभी बैंकों, बीमा कंपनियों, टेलीकॉम सेवाओं पर पालन का दबाव।
- एक्सेसिबिलिटी ऑडिट:
सभी ऐप्स, वेबसाइटों की समय-समय पर जांच।
- डिज़ाइन में समावेशन:
डिज़ाइन के प्रारंभ से ही दिव्यांगजनों की जरूरतों को शामिल करना।
- प्रशिक्षण और जागरूकता:
स्टाफ और डेवलपर्स को कानून और समावेशी डिज़ाइन पर प्रशिक्षित करना।
- तकनीकी अनुकूलता:
AI आधारित टूल्स में ऑडियो संकेत, संकेत भाषा, स्क्रीन रीडर, और वैकल्पिक पहचान (जैसे अंगूठे के निशान) की सुविधा हो।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत में डिजिटल समानता की दिशा में मील का पत्थर है। डिजिटल पहुंच को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने से तकनीक के महत्व को कानूनी संरक्षण मिला है। अब आवश्यकता है कि इस अधिकार को ज़मीन पर उतारने के लिए कठोर प्रवर्तन, संस्थागत जिम्मेदारी और समावेशी सोच को अपनाया जाए।