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न्यायपालिका में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस: भारत की डिजिटल छलांग

19.12.2025

न्यायपालिका में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस: भारत की डिजिटल छलांग

प्रसंग

दिसंबर 2025 में, केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय ने संसद को बताया कि AI-बेस्ड टूल्स को -कोर्ट्स फेज़-III प्रोजेक्ट ( 7,210 करोड़ के खर्च के साथ ) में इंटीग्रेट किया जा रहा है। फोकस एडमिनिस्ट्रेटिव एफिशिएंसी बढ़ाने, केस पेंडिंग कम करने और न्याय तक पहुंच को बेहतर बनाने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने पर है, साथ ही यह पक्का किया जा रहा है कि AI सिर्फ एक सपोर्ट सिस्टम के तौर पर काम करे, न कि इंसानी जजों की जगह ले।

 

न्यायपालिका में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बारे में

यह क्या है?

मशीन लर्निंग (ML) , नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (NLP) , और ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकॉग्निशन (OCR) जैसी टेक्नोलॉजी को ज्यूडिशियल वर्कफ़्लो में इंटीग्रेट करना ।

  • मुख्य भूमिका: डिसीजन-सपोर्ट, केस-फ्लो मैनेजमेंट, और ऑटोमेटेड ट्रांसक्रिप्शन।
  • दूसरी भूमिका: चैटबॉट और कई भाषाओं वाले ट्रांसलेशन के ज़रिए लोगों को मिलने वाली सेवाओं को बेहतर बनाना।

उठाए गए मुख्य कदम:

  • LegRAA (लीगल रिसर्च एनालिसिस असिस्टेंट): NIC का बनाया यह टूल जजों को डॉक्यूमेंट एनालिसिस, कानूनी मिसालों की पहचान करने और मुश्किल केस फाइलों को समराइज़ करने में मदद करता है।
  • SUPACE (सुप्रीम कोर्ट पोर्टल फॉर असिस्टेंस इन कोर्ट एफिशिएंसी): एक एक्सपेरिमेंटल AI पोर्टल जो ज़रूरी फैक्ट्स और कानूनों को इकट्ठा और एनालाइज़ करता है, और उन्हें जजों को अवेलेबल कराता है ताकि फैसला लेने का प्रोसेस तेज़ हो सके।
  • SUVAS (सुप्रीम कोर्ट विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर): एक AI-पावर्ड ट्रांसलेशन टूल जो पहले ही 31,000 से ज़्यादा फैसलों को क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं में ट्रांसलेट कर चुका है ताकि भाषा के बीच की खाई को पाटा जा सके।
  • डिजिटल कोर्ट्स 2.1: जजों के लिए एक खास एप्लीकेशन जिसमें SHRUTI (ऑर्डर लिखवाने के लिए AI स्पीच-टू-टेक्स्ट) और PANINI (इंटीग्रेटेड ट्रांसलेशन) की सुविधा है।
  • डिफेक्ट आइडेंटिफिकेशन टूल: IIT मद्रास के साथ मिलकर बनाया गया यह ML टूल सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग में डिफेक्ट को ऑटोमैटिकली पहचानने में मदद करता है।

 

AI इंटीग्रेशन के फ़ायदे

  • एफिशिएंसी और स्पीड: शेड्यूलिंग, डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन और मेटाडेटा निकालने जैसे रूटीन कामों को ऑटोमेट करता है, जिससे जज मुख्य कानूनी तर्क पर फोकस कर पाते हैं।
  • बैकलॉग कम करना: AI से चलने वाला "प्रेडिक्टिव एनालिटिक्स" केस-फ्लो में आने वाली रुकावटों को पहचान सकता है और टाइम-सेंसिटिव मामलों के लिए प्रायोरिटी का सुझाव दे सकता है।
  • ट्रांसपेरेंसी: लाइव ट्रांसक्रिप्शन (जैसा कि कॉन्स्टिट्यूशन बेंच की सुनवाई में देखा गया) और न्याय श्रुति के ज़रिए डिजिटल सबूतों की रिकॉर्डिंग , कार्यवाही का ऑडिटेबल और ट्रांसपेरेंट रिकॉर्ड पक्का करती है।
  • एक्सेसिबिलिटी: कई भाषाओं वाले जजमेंट पोर्टल आम लोगों को अपनी भाषा में कोर्ट के ऑर्डर पढ़ने की सुविधा देते हैं।

 

चुनौतियाँ और नैतिक चिंताएँ

  • एल्गोरिदमिक बायस: क्योंकि AI को पुराने डेटा पर ट्रेन किया जाता है, इसलिए यह अनजाने में मौजूदा सामाजिक या कानूनी बायस को बनाए रख सकता है, जिससे "अलग-अलग तरह का बर्ताव" हो सकता है।
  • भ्रम और सटीकता: जेनरेटिव AI कभी-कभी "काल्पनिक" उदाहरण या कानूनी उदाहरण (भ्रम) बना सकता है, जिसके लिए सख्त इंसानी वेरिफिकेशन की ज़रूरत होती है।
  • प्राइवेसी और सिक्योरिटी: सेंसिटिव कानूनी डेटा को संभालने के लिए डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (DPDP) एक्ट, 2023 के तहत मजबूत फ्रेमवर्क की ज़रूरत होती है ।
  • ट्रांसपेरेंसी की कमी: कुछ AI मॉडल्स का "ब्लैक बॉक्स" नेचर केस लड़ने वालों के लिए टेक-सपोर्टेड रिकमेंडेशन के पीछे का लॉजिक समझना मुश्किल बना देता है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता: ऐसी चिंताएं हैं कि AI "भविष्यवाणियों" पर बहुत ज़्यादा निर्भरता जज के स्वतंत्र विवेक पर असर डाल सकती है।

 

आगे बढ़ने का रास्ता

  • फेज़्ड रोडमैप: सरकार ने खास तौर पर "फ्यूचर टेक्नोलॉजिकल एडवांसमेंट्स" के लिए 53.57 करोड़ दिए हैं , ताकि कंट्रोल्ड और सुरक्षित पायलट-बेस्ड रोलआउट पक्का किया जा सके।
  • ह्यूमन-इन--लूप: एक ऐसा रेगुलेटरी फ्रेमवर्क बनाना जहां AI आउटपुट हमेशा आखिरी इंसानी निगरानी और मैनुअल वेरिफिकेशन के अधीन हों।
  • कैपेसिटी बिल्डिंग: जजों, वकीलों और कोर्ट स्टाफ़ के लिए खास ट्रेनिंग ताकि वे AI टूल्स की क्षमताओं और नैतिक सीमाओं को समझ सकें।
  • स्टैंडर्ड गाइडलाइंस: लोकल इलाकों में AI के इस्तेमाल को कंट्रोल करने के लिए हाई कोर्ट द्वारा एक जैसे ऑपरेशनल नियम बनाना।

 

निष्कर्ष

भारतीय न्यायपालिका में AI का इंटीग्रेशन 2047 तक "विकसित भारत" की दिशा में एक बड़ा बदलाव लाने वाला कदम है। हालांकि यह टेक्नोलॉजी केस पेंडिंग होने की समस्या का एक मज़बूत समाधान देती है, लेकिन इसका इस्तेमाल "इंसानों पर केंद्रित" रहना चाहिए—यह पक्का करते हुए कि "न्याय की आत्मा" इंसानों के हाथों में रहे, जबकि "न्याय की मशीनरी" AI से चले।

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