प्राकृतिक खेती का महत्त्व

प्राकृतिक खेती का महत्त्व

मुख्य परीक्षा:सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र 3

(भारतीय कृषि)

04 सितंबर, 2023

भूमिका:

  • प्राकृतिक खेती हमारी परंपरा से जुड़ी हुई है और अब यह समय की मांग बन चुकी है।
  • खेती के आधुनिक तौर-तरीके अपनाकर हमने अपनी खाद्य जरूरतों को तो पूरा कर लिया, मगर दूसरी ओर रसायन के अंधाधुंध प्रयोग की वजह से, हमारी धरती और हमारे जीवन पर इसका बहुत दुष्प्रभाव पड़ा है।
  • रासायनिक खेती के कारण धरती की घटती उर्वरा शक्ति और बढ़ते प्रदूषण ने पूरी दुनिया को चिंता में डाल दिया है। मगर इसका समाधान हमारी परंपरागत खेती यानी प्राकृतिक खेती में मौजूद है।

प्राकृतिक खेती

  • प्राकृतिक खेती एक खेती प्रणाली है जिसमें केवल प्राकृतिक तरीकों से खेती की जाती है, इसमें रसायनों, पेस्टिसाइड्स, और सिंथेटिक उपचार का प्रयोग नहीं किया जाता है।
  • प्राकृतिक खेती का उद्देश्य सुरक्षित, स्वस्थ, और पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाने वाले खाद्य पदार्थों का उत्पादन करना है।
  • प्राकृतिक खेती की प्राथमिक जरूरत है पशुपालन, क्योंकि पशुओं के अपशिष्ट से खाद और कीटनाशक बनाए जाते हैं। इसमें सबसे अधिक उपयोगी है देसी गाय, क्योंकि देसी गाय के गोबर और गोमूत्र में जो तत्त्व पाए जाते हैं वे किसी अन्य पशु के अपशिष्ट में नहीं मिलते। हमारे देश में पहले इसी प्रकार से खेती की जाती थी और उससे उत्पन्न अन्न, फल, सब्जियों आदि की अलग ही विशेषता होती थी। आज फिर उसी तकनीक को अपनाने की जरूरत है, जिससे स्वास्थ्य, पर्यावरण तथा धरती के बंजर होने के खतरे को रोका जा सके और हम अपनी प्राचीन समृद्धि को प्राप्त कर सकें।
  • दरअसल, मिट्टी में पाए जाने वाले जीव मित्र ही खेती में बेहद सहायक होते हैं। रसायनों के प्रयोग से वे मरने लगते हैं, जिससे धीरे-धीरे धरती की उपजाऊ शक्ति कम होने लगती है और वो बंजर होने की कगार तक पहुंच जाती है।
  • प्राकृतिक खेती में प्रयुक्त खाद और जीवामृत मिट्टी में पाए जाने वाले इन जीव मित्रों की संख्या को कई गुना बढ़ा देते हैं, जिससे धरती की उर्वरता, फसलों की गुणवत्ता और मात्रा में भी बढ़ोतरी होती है। इसमें न तो खाद की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और न ही पानी की।
  • मिट्टी में सोलह तरह के पोषक तत्त्व पाए जाते हैं, जो फसलों की अच्छी बढ़वार और ज्यादा पैदावार के लिए जरूरी हैं। इनमें से एक भी तत्त्व की कमी हो जाने पर, बाकी पंद्रह तत्त्वों का भी विशेष लाभ फसल को नहीं मिल पाता।
  • देसी गाय के गोबर में ये सभी तत्त्व मौजूद रहते हैं। गाय के गोबर और मूत्र की गंध, केंचुओं की संख्या बढ़ाने में सहायक होती है और ये केंचुए किसानों के मित्र माने जाते हैं।
  • इसमें सिंचाई भी पौधों से कुछ दूरी पर की जाती है, जिसमें केवल दस फीसद पानी लगता है।
  • प्राकृतिक खेती में पौधों की दिशा उत्तर-दक्षिण रखी जाती है, ताकि पौधों को सूरज की ऊर्जा और रोशनी ज्यादा समय तक मिले।
  • इससे पौधों का अच्छा विकास हो जाता है, उनमें न सिर्फ कीट लगने की आशंका कम हो जाती है, बल्कि पौधों में पोषक तत्त्व भी संतुलित मात्रा में एकत्र हो जाते हैं।

प्राकृतिक खेती का महत्त्व

प्राकृतिक खेती मानव समुदायों, पर्यावरण और सामाजिक अर्थव्यवस्था की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है:

  • स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण: प्राकृतिक खेती में शानदार कार्बनिक खाद्य पदार्थों का उत्पादन होता है, जिनमें कीमिकल जैविक हानिकारक प्रदूषकों की अभाव होता है। इससे प्राकृतिक खेती के उत्पादों में न्यूनतम प्रमाण में जीवाणु, पेस्टिसाइड्स, और कीटाणुओं के अवशिष्ट बचते हैं, जिससे खाद्य के उपभोक्ताओं के लिए स्वस्थ और सुरक्षित खाद्य उपलब्ध होता है।
  • जैव विविधता का संरक्षण: प्राकृतिक खेती का प्रयोग करने से पृथ्वी का प्राकृतिक संतुलन बना रहता है और जैव विविधता को संरक्षित रखता है। इसके अलावा, यह बीजों की वाणिज्यिक विविधता को बढ़ावा देता है और भूमि की फर्टिलिटी को बनाए रखने में मदद करता है।
  • रोजगार और आय का साधन: प्राकृतिक खेती ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर प्रदान करती है और किसानों की आय को बढ़ावा देती है। यह बेहतर खेती तकनीकियों के अध्ययन और प्राथमिकताओं के साथ सामृजनिक विकास को प्रोत्साहित करती है।
  • पर्यावरण सुरक्षा: प्राकृतिक खेती के लिए खाद्य पदार्थों के उत्पादन में बर्बादी नहीं होती है और उसमें जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम किया जा सकता है। इससे कार्बन फुटप्रिंट कम होती है और जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रॉब्लम्स को दूर किया जा सकता है।
  • भूमि सुरक्षा: प्राकृतिक खेती के लिए सही खेती प्रथाओं का पालन करने से भूमि की सुरक्षा बनी रहती है और खेती की अधिक सुरक्षित और स्थिर होती है।
  • खाद्य सुरक्षा: प्राकृतिक खेती के माध्यम से खाद्य उत्पादों की अधिक उपज होती है, जिससे खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक खेती में फसलों में जलवायु परिवर्तन की मार को सहन करने की ताकत रहती है। इसमें लागत कम आती, पानी की बचत होती और उत्पादन भी बढ़ जाता है।
  • देसी बीज पोषक तत्त्व कम लेते और पैदावार ज्यादा देते हैं।
  • प्राकृतिक खेती छोटे और सीमांत किसानों के लिए लाभकारी होती है क्योंकि इसमें उर्वरकों और कीटनाशकों पर कोई खर्च नहीं आता और उपज भी भरपूर मिलती है।
  • खेती के लिए खाद और कीटनाशक जरूरी होते हैं। इन्हें घर पर ही मौजूद सामग्री से बनाया जा सकता है। इसमें खाद के रूप में जीवामृत और घनजीवामृत तैयार किए जाते हैं।
  • यह खाद मिट्टी की भौतिक दशा को सुधार देती है। इसी तरह कीटनाशक बनाने के लिए गोबर, गोमूत्र, पौधों के पत्ते, तंबाकू, लहसुन और लाल मिर्च का प्रयोग किया जाता है।
  • खेती को अक्सर मौसम की मार झेलनी पड़ती है, जिससे किसानों का बहुत नुकसान होता है और कड़ी मेहनत करने के बावजूद उनकी फसलें बर्बाद हो जाती हैं। ऐसे में प्राकृतिक खेती के तरीके अपनाकर इन चुनौतियों का समाधान निकल सकता है।
  • प्राकृतिक खेती में फसलें मौसम की मार और जलवायु में हो रहे परिवर्तन को आसानी से सहन कर लेती हैं।
  • प्राकृतिक कृषि में मुख्य फसल के साथ सहयोगी फसलों को भी उगाया जा सकता है। खेती करने के इस तरीके में देसी बीजों की भी काफी अहम भूमिका होती है।

रासायनिक खेती के दोष:

  • खेती में रसायनों का प्रयोग न केवल मिट्टी को कमजोर करता, बल्कि फसलों को भी जहरीला बना देता है।
  • रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक पर्यावरण को भी प्रदूषित कर देते हैं।
  • कई बार मानक से ज्यादा कीटनाशक पाए जाने पर विदेशी खरीदार हमारी फसलों को खरीदने से मना कर देते हैं।
  • ये रसायन भूमिगत जल में मिल कर उसे प्रदूषित कर देते हैं।
  • रासायनिक खेती में लागत अधिक आती है और रसायनों ने जिस तरह से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति पर वार किया है, उससे यह लागत और बढ़ जाती है।

भारत में प्राकृतिक खेती का आरंभ:

  • भारत में प्राकृतिक खेती की शुरुआत सुभाष पालेकर ने की थी। पहले उन्होंने अपने फार्म में रासायनिक तरीके से ही खेती करनी शुरू की थी। मगर कई वर्षों के बाद उन्हें प्राकृतिक खेती का विचार उपनिषदों और वेदों से मिला।
  • इन धार्मिक ग्रंथों में प्रचलित कुछ सूत्रों से प्रेरित होकर उन्होंने प्राकृतिक खेती की शुरुआत की और इस पर वैज्ञानिक शोध शुरू किए।
  • वे खेती के ऐसे तरीके तलाश करने लगे, जिससे मिट्टी में मौजूद जीवों की रक्षा हो सके और ये तभी संभव था, जब खेत जहरीले रसायनों से मुक्त हों और मिट्टी की सेहत मजबूत हो।
  • पालेकर ने रासायनिक खेती करते हुए पाया कि लगभग बारह-तेरह वर्षों तक तो खेती में पैदावार बढ़ती रही, लेकिन उसके बाद घटनी शुरू हो गई।
  • इसके अलावा आदिवासियों के साथ काम करते हुए उन्हें पता चला कि जंगलों में पौधों के विकास के लिए किसी बाहरी तत्त्व की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि बढ़वार के लिए जरूरी सभी साधन प्रकृति से ही उपलब्ध हो जाते हैं।
  • छह साल की कड़ी मेहनत के बाद उन्होंने बिना रसायनों वाली प्राकृतिक खेती की तकनीक विकसित करने में सफलता हासिल की।
  • इसका उन्होंने नाम दिया- ‘कम लागत प्राकृतिक खेती’। अब वे पूरे भारत में इसे प्रोत्साहित कर रहे हैं।

निष्कर्ष:

  • प्राकृतिक खेती हर प्रकार से किसानों, धरती और पर्यावरण के लिए बहुत ही उपयोगी है। लेकिन खेती को जिस तरह उद्यम बनाने की होड़ है, उसमें यंत्रों और रासायनिक उर्वरकों का अतार्किक उपयोग देखा जाता है। अनेक विदेशी कंपनियां अधिक उत्पादन देने वाले बीजों का विकास करने में लगी हैं। पहले जो कृषि अनुसंधान केंद्र देश की जलवायु और मिट्टी की प्रकृति का ध्यान रखते हुए बीजों का विकास किया करते थे, अब वे हाशिये पर चले गए हैं। ऐसे में सरकार को न केवल प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने, बल्कि बीज, खाद, रसायन बनाने वाली कंपनियों पर भी नियंत्रण रखने की जरूरत है।

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मुख्य परीक्षा प्रश्न

रासायनिक खेती के सन्दर्भ में प्राकृतिक खेती के महत्त्व पर विस्तारपूर्वक चर्चा कीजिए